छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के एक प्राथमिक स्कूल में मैं एक शिक्षक के रूप में काम करता हूँ जो मूल रूप से आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है जो दशकों से नक्सलवाद की आग में झुलसता आ रहा है जिसका असर यहाँ की ज़िंदगी के हर एक पहलू में दिखाई देता है | राज्य सरकार और विभिन्न संस्थाओं की लाख कोशिशों के बावजूद भी बच्चों को स्कूल तक लाना आसान काम काम नहीं है | इसके विभिन्न पहलुओं पर नजर डालें तो आपको इसके कई पहलू नजर आ सकते हैं | शायद मॉडर्न पाठ्यक्रम और विषयों से वो अपने आप को जोड़ नहीं पाते या फिर उनको अपनी ज़िंदगी से फुरसत ही नहीं है कि वो पढ़ाई-लिखाई के बारे में सोच सकें | मैं जिस स्कूल में पढ़ाता हूँ वहाँ से कक्षा पाँचवीं पास करके 10 बच्चे मिडल स्कूल में गए | राज्य सरकार बच्चों की संख्या बढ़ाने पर जोर देती है और फिर हमें भी लगा कि काम से काम उतने बच्चे तो तो स्कूल में आने चाहिए जीतने मिडल स्कूल में गए हैं | 

बच्चों की संख्या बढ़ाने के लिए हम उसी गाँव के आंगनवाड़ी केंद्र पर गए हमें वहाँ दो बच्चे मिले जो 6 साल की उम्र पूरी कर चुके थे उसी गाँव के दूसरे आंगनवाड़ी केंद्र पर हमें और 2 बच्चे मिल गए | अब बच्चों की संख्या 4 थी लेकिन हमें कम से कम 10 बच्चों की जरूरत थी | दोनों केंद्रों पर पता करने पर समझ आया कि कुछ बच्चे और हैं जिन्हें स्कूल में भर्ती किया जा सकता है पर उनकी आयु 6 वर्ध से काम है तो हुमएन स्थानीय अधिकारियों से बात करके साढ़े 5 से 6 के बीच की उम्र के 6 और बच्चों का अपने स्कूल में दाखिल कर लिया | इस तरह हमने इतने बच्चों का स्कूल में दाखिला कर लिया जितना हमने तय किया था |