संस्कृत का एक शब्द है उपसेचन जिसका अर्थ होता है “ भूख से खाना “ या “ चाटकर खाना ” इसी का अपभ्रंश है चटनी | चटनी आम तौर से किसी भी डिश में मूल्य जोड़ने का काम करती है इसका उपयोग एक स्वादिष्ट पदार्थ या संगत के रूप में किया जाता है यह किसी न किसी तरह पकवान का स्वाद बढ़ाती है या डिश के स्वाद के पूरक का काम करती है | कभी-कभी इसका इस्तेमाल डिश के स्वाद को संतुलित करने के लिए भी किया जाता है | साथ ही अन्य डिशों के साथ भी परोसी जाती है |

चटनी के प्रकार
वैसे तो अब यह दुनिया के हर एक देश में किसी न किसी रूप में पाई जाती है | आमतौर से यह माना जाता है कि 500 BC. के आस-पास जब यूरोपिया देशों के साथ आवागमन की शुरुआत हुई तो पहले रोमन और फिर ब्रिटिश लोगों ने इसमें अपने हिसाब से बदलाव कर इसे अपने अनुकूल बना लिया लेकिन बाद में ब्रिटिश समाज में इसका चलन कम हो गया | फिर 17 सदी में युरोपिया लोगों का रुझान इसकी तरफ हुआ और 1780 के दशक तक ब्रिटेन के रेगुलर खाने में इसका इस्तेमाल होने लगा था | संभवतः ब्रिटेन के उपनिवेशिक शक्ति होने के कारण दुनिया भर में इसका प्रसार तेजी के साथ हुआ हो | आज अधिकांश देशों में लोग इसका इस्तेमाल अपनी-अपनी सुविधानुसार अलग-अलग नामों व अलग-अलग स्वादों के जरिए कर रहे हैं |
वैसे तो कई सारी चटनियां इस संभाग के खाने का स्वाद बढ़ाती हैं पर मैं कुछ ऐसी स्थानीय चटनियों से आपका परिचय कराने वाला हूँ जिन्हें शायद आप नहीं जानते होंगे (शायद आप जानते भी हों ) जैसे-
1) चापड़ा चटनी
2) खट्टा भाजी की चटनी (वंगागुन्डल )
3) केकड़े की चटनी (एटेगुंडल)
4) बेसे की चटनी (बेसेगुंडल )
5) इमली की चटनी (मर्कागुंडल )
6) आलू की चटनी (आलूगुंडल)
7) बैगन की चटनी (आपगुण्डल)

ध्यान से देखिए इस छोटे से जीव को शायद आपने इसे कहीं देखा हो ? हाँ देखा होगा | जरूर देखा होगा | शायद अब याद आया हो |आप इसे किस नाम से जानते हैं इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता बस आप इस छोटे से जीव के बारे में जानते हों | वैसे इसे उत्तर प्रदेश में माटा, लाल चींटी या लाल चींटा कहते हैं शायद इसके और भी दूसरे नाम हों पर मुझे नहीं पता | वैसे इसे छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में इसे चापड़ा के नाम से जानते हैं | बस्तर के जंगलों में पाया जाने वाला यह लाल चींटा यहाँ के आदिवासियों में काफी प्रचलित है इसे लोग काफी चाव के साथ खाते हैं, खाने में स्वादिष्ट व औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है |

यहाँ के आदिवासी जंगलों में चापड़ा की तलाश में जाते हैं और पेड़ों के नीचे चादर या कपड़ा बिछाकर पेड़ों की शाखाओं पर चढ़कर टहनियों को जोर से हिलाते हैं ताकि चींटियाँ कपड़ों पर गिर जाएँ, फिर कपड़ों को चींटियों के साथ उठा लिया जाता है और इसकी एक शानदार व स्वादिष्ट चटनी बनाई जाती है | यदि चापड़ा पारिवारिक उपयोग से ज्यादा मात्र में एकत्रित कर लिया जाता है तो उसे पास के साप्ताहिक बाजारों में या फिर सड़क के किनारे कुछ तयशुदा जगहों पर बेचा जाता है ताकि ग्रामीणों के अलावा अन्य राहगीर भी इसे अपनी सुविधानुसार खरीद सकें | सामान्यतः मापन की कोई प्रक्रिया नहीं होती है | स्थानीय निवासी एक दोना बनाते हैं जिसे सामान्यतः महुआ या तेंदू पत्ते से बनाया जाता है ( वैसे कई बार इसे बनाने में अन्य पेड़ों के पत्तों का भी इस्तेमाल होता है ) एक डोना चापड़ा की कीमत सामान्यतः 5 से 10 रुपए मानी जाती है |
चटनी बनाने के लिए ग्रामीण हरी धनिया, मिर्ची और टमाटर के मिश्रण का उपयोग करते हैं या कभी-कभी चापड़ा को डोने के साथ आग में कुछ देर भून लिया जाता है फिर अन्य सामग्रियों के साथ एक स्वादिष्ट व लजीज चटनी बनाई जाती है | स्थानीय ग्रामीणों में कई मादक पेय पदार्थ प्रचलित हैं इसलिए चखने में भी इसका भरपूर मात्रा में इसका इस्तेमाल होता है |

हजारों सालों से बस्तर भूभाग में ‘ केकड़ा’ जनजातियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले पारंपरिक व्यंजनों में उनका सबसे पसंदीदा और लजीज व्यंजन है | इसे स्थानीय जनजातियाँ दो तरीके से इस्तेमाल करती हैं पहला केकड़े की चटनी बनाकर दूसरा मसालेदार मीट के रूप में | स्थानीय निवासियों इस बात से बहाली-भांति परिचित हैं कि केकड़े में पाई जाने वाली ओमेगा-3 फैटी ऐसिड व एस्कार्बिक ऐसिड की मात्रा शरीर की प्रतिरक्षा ( immunity power ) को बढ़ाकर उसे मजबूत, फुर्तीला और शक्तिशाली बनाती है सामान्यतः इसे लोग सर्दियों के मौसम में खाना पसंद करते हैं |

केकड़े को पकड़ने के लिए लोग जंगलों में जाते हैं उन्हें केकड़ों के बिलों की पहचान अच्छी तरह होती है | ताड़ के पेड़ पत्ते से “ मुया ” ( आप इसे गोल बंसी समझ सकते हैं ) बनाकर केकड़ों के बिल में डालकर उसे ऊपर से हिलाते हैं जिससे मुया का घर्षण बिल की दीवारों से होता है और एक मधुर संगीत की आवाज निकलती है जिससे केकड़े प्रभावित होकर बिल से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं इसी दौरान ताड़ के पत्ते से बनी गोल बंसी जिसे खींचने पर केकड़े के पैरों को कसकर बांध देती है को खींच दिया जाता है और फिर केकड़े अंदर भागने की कोशिश करते हैं लेकिन ताड़ की बंसी के जरिए उन्हें बाहर खींच लिया जाता है | फिर केकड़े को आग में भूना जाता है और उसे साफ करने के बाद पत्थर की सील (टुकड़े) पर नमक, बेसे और मिर्च के साथ पीसकर चटनी बनाई जाती है | कभी-काभी इसमें अन्य सामग्रियों का भी मिश्रण किया जाता है |
मुझे इनके बारे में लिखने में जितना मज़ा आया, मुझे इन्हें खाने में उतना ही मज़ा आया। मुझे आशा है कि आप पढ़ते समय उनका स्वाद ले सकते हैं क्योंकि हर निवाला इसे खाने में आनंददायक बनाता है |