
मेरे समाज के दो रूप है, मेरे इस समाज में स्त्रियों को अलग-अलग दर्जा दिया गया है| परन्तु एक समाज उनके हक के लिए लड़ रहा है| वही दूसरी ओर मैं जब देखता हूँ, तो मुझे दूसरा समाज इस समाज से कई गुना विकसित और सभ्य नज़र आता है| पिछले कई सौ वर्षो से दहेज़ प्रथा मेरे समाज में रहने वाली स्त्रियों के लिए एक गंदी गाली के समान उभर कर सामने आती रही है और इसी समाज के कई मार्गदर्शक इस समस्या को जड़ से खत्म करने का प्रयास कर रहे है|
दहेज़ प्रथा ने वर्तमान में एक महामारी का रुप ले लिया है, यह किसी आतंकवाद से कम नहीं है क्योंकि जब गरीब परिवार के माता पिता अपनी बेटी की शादी करने जाते है तो उनसे दहेज की मांग की जाती है और वह दहेज देने में असमर्थ होते है तो या तो वह आत्महत्या कर लेते है या फिर किसी जमींदार से दहेज के लिए रुपए उधार लेते है और जिंदगी भर उसका ब्याज चुकाते रहते है। इसका विस्तार होने का कारण लोगों की दकियानूसी सोच है वह सोचते है कि अगर बेटे की शादी में दहेज नहीं मिला तो समाज में उनकी थू-थू होगी उनकी कोई इज्जत नहीं करेगा। वह दहेज लेना अपना अधिकार समझने लगे है जिस कारण यह दहेज रूपी महामारी हर वर्ग में फैल गई है। अगर जल्द ही इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह मानव सभ्यता पर बहुत बड़ा कलंक होगा।
महात्मा गांधी जी ने भी दहेज प्रथा को एक कलंक बताया है उन्होंने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि “जो भी व्यक्ति दहेज को शादी की जरुरी शर्त बना देता है, वह अपने शिक्षा और अपने देश को बदनाम करता है, और साथ ही पूरी महिला जात का भी अपमान करता है … “
यह ऐसा कठोर सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता है। 21वीं सदी में भारत के लोग अपने सभ्य होने का दावा करते है लेकिन जब उनको कहा जाता है कि दहेज ना लें तो वह अपनी सभ्यता भूल जाते है और दहेज की मांग ऐसे करते है जैसे यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। समाज के पढ़े लिखे युवा भी इसके खिलाफ नहीं बोलते है क्योंकि उनको भी कहीं ना कहीं यह डर रहता है कि अगर उन्हें दहेज में कुछ नहीं मिला तो अपने परिवार वालों और दोस्तों में उनकी इज्जत घट जाएगी इसलिए वह भी दहेज की मांग करने लगे है।

दूसरी ओर एक समाज और है जिसे हम आदिवासी समाज के नाम से जानते है| जब मैंने छत्तीसगढ़ में रहने वाले आदिवासी लोगो से दहेज़ रूपी दानव के बारे में चर्चा की तो उन्होंने बताया की एक समय तक उनके यहाँ दहेज़ प्रथा नही रही मतलब जिस समय से हम अपने एक समाज से दहेज़ प्रथा को हटाने का प्रयास कर रहे है| उस समय के आरम्भ से यहाँ दहेज़ प्रथा का नामुनिशान नही था लेकिन अब समय बदल रहा है और इनके यहाँ जब से प्रवासियों का आना आरम्भ हुआ है| तब से दहेज़ प्रथा का यह दानव यहाँ भी पैर पसारने लगा है|
अगर हम पहले की बात करते है तो यह लोग बताते है की इनके यहाँ विवाह केवल लड़के और लड़की की पसंद मात्र से बिना किसी लेन-देन के हुआ करता था| परन्तु अब स्थिति में बदलाव आने लगा है| जिस समाज को हम विकसित समाज का दर्जा देकर विकास के मॉडल में सम्मिलित कर सकते थे और उदाहरण स्वरूप उन लोगो के समक्ष प्रस्तुत कर सकते थे जो दहेज़ प्रथा के भूखे है| वही विकास की इस अंधी दौड़ ने सब चौपट कर दिया है| अब हालात यह है की प्रवासियों के आगमन से यहाँ भी दहेज़ प्रथा अब ज़ोर पकड़ने लगी है| जहाँ से इसकी शुरुआत हुई थी उसी प्रकार हम अपने इस समाज में इसका आरम्भ इस समय में देख सकते है| विकास की इस दौड़ में हम प्रयास कर रहे है की हम अपने समाज की इन बुराईयों को दूर करे परन्तु हाल यह है की एक तरफ से हम इन बुराईयों के विनाश के लिए लड़ रहे है और दूसरी ओर इन बुरइयो को अपने उस समाज का हिस्सा बना रहे है जहाँ ऐसी ख़राब सभ्यताओ का नाम भी नही था| हमारे इस विकास के मॉडल में कही तरक्की नज़र आये या ना आये परन्तु विनाश अवश्य नज़र आता है|
जो नीतियाँ सरकार आज के समय में दहेज़ प्रथा को हटाने के लिए अपना रही है| वही निति यहाँ आज से पन्द्रह या बीस साल बाद इन क्षेत्रो में दुबारा लागू करने की जरूरत पड़ेगी क्योकि हम वही गलती दुबारा दोहरा रहे है| जो आज से बहुत साल पहले की गयी थी फर्क इतना था की उस समय में कोई समझने और रोकने वाला नही था| जिन लोगो ने इसे समझा और रोकने प्रयास किया तब तक बहुत देर हो चुकी थी परन्तु आज हम सब कुछ देख रहे है और इसके परिणामों से भी भली भाँती अवगत है परन्तु विकास की इस दौड़ में इसे नज़र अंदाज़ कर के आगे बढ़ रहे है|
कुछ सालो पश्चात हम दुबारा इसी जगह लौट कर आयेंगे और इसे खत्म करने के लिए आंदोलन शुरू करेंगे जागरूकता फैलायेंगे परन्तु अभी इस दहेज़ रुपी कैंसर को इसी प्रकार इस समाज में फैलने देंगे क्योकि भविष्य में जब युवा पीढ़ी नौकरी के लिए सरकार से गुहार लगाएगी तब सरकार उस युवा पीढ़ी को इस समस्या को खत्म करने का काम सौपेगी …
The blog was originally published in India fellow blog. The blog is written by Md. Azhruddin who was a former India fellow working in Shiksharth Sukma.