
“जब तक आप हमें मारेंगे नही तब तक हम काम नही करेंगे” यह जवाब 21वीं सदी के डिजिटल भारत में एक आदिवासी विद्यार्थी का है| सवाल यह उठता है कि आखिर हम उनको ऐसा क्या सिखाना और पढ़ाना चाहते है जिसके लिए हम उनको इतना प्रताड़ित कर रहे है|
जबकि भारत में Right Of Children To Free And Compulsory Education Act (RTE), 2009 के तहत बच्चो को शारीरिक प्रताड़ना देना और मानसिक रूप से उन्हें परेशान करना एक दंडनीय अपराध है| वर्ष 2010 में Ministry Of Women And Child Development ने एक गाइडलाइन जारी की थी जिन में छात्रो को शारीरिक प्रताड़ना देना प्रतिबंधित था| इन गाइडलाइन के मुताबिक अगर कोई शिक्षक पहली बार इस तरह की हरकत करता है तो उसे एक साल की जेल हो सकती है या 50 हज़ार का जुर्माना|
मैं बात करने जा रहा हूँ भारत के एक राज्य छत्तीसगढ़ की, जहाँ साल 2006-07 में नक्सलियों और सरकार के सैन्य बल के बीच एक संघर्ष हुआ, जिसे सलवा जुडूम के नाम से जाना गया है| सलवा जुडूम के अंतर्गत नक्सलियों और सरकारी सैन्य बालो के बीच मुठभेड़ होती रही जिसके चलते कई गाँव के गाँव उजाड़ दिए गये और उन गांवों के अंदर बने विद्यालयों को नक्सलियों द्वारा “विस्फोट” कर उड़ा दिया गया विद्यालयों को तहस नहस करने का एक मकसद जो सामने आता है|वह यह है कि यह लोग सरकार से मिलने वाली किसी भी सुविधा को अपनाना नही चाहते थे और ना ही किसी गाँव के निवासी को अपनाने दे रहे थे| सलवा जुडूम जैसे संघर्ष में ऐसा क्यों हुआ यह बता पाना थोडा मुश्किल है क्योकि अगर हम सलवा जुडूम का अर्थ समझे तो “गोंडी भाषा में इसका अर्थ होता है शान्ति मार्च (peace march) और शुद्धी शिकार (purification hunt)इस अर्थ के पश्चात भी इसने एक व्यापक रूप ले लिया जिसमें यहाँ के ज्यादातर मूल निवासियों को अपना गाँव और घर छोड़ के पलायन करना पड़ा किसी और क्षेत्र में यह पुरे छत्तीसगढ़ के लिए एक गहरा सदमा था| जिससे उभरना इतना आसान मालूम न पड़ता था|इसके बावाजूद यहाँ के लोगो जिस प्रकार उन्नति की और अपने आपको तैयार किया वह देखने योग्य था हम यह भी कह सकते है की सलवा जुडूम जो संघर्ष था वह धीरे-धीरे एक ऐसा नासूर बना जिसे इतनी आसानी से नही भरा जा सकता आज भी, इसके पश्चात वर्ष 2009 के आते-आते जब सरकार को हालात में कुछ सुधार नज़र आया| तब सरकार के द्वारा छत्तीसगढ़ के जिला बस्तर में कुछ पोर्टा कैबिंस का निर्माण शुरू किया गया|
मैं आपको बता देना चाहता हूँ की पोर्टा कैबिंस अंग्रेजी शब्द (portable cabins) से लिया गया है| जिसका अर्थ होता है, “उठाने योग्य” ईमारत या यूँ कहे एक ऐसा ढांचा जिसे उठा कर एक जगह से दूसरी जगह रखा जा सके| उस समय इन इमारतो का निर्माण वहाँ के हालात को देखते हुए किया गया कहाँ जाता है की उस समय इसे बांस की लकड़ियों से बनाया गया जिसके आर-पार गोली आसानी से जा सकती थी इनका ढांचा इस प्रकार का इसलिए बनाया गया क्योकि नक्सलियों और सरकारी सैन्य बलों के बिच मुठभेड़ में यह लोग मूलवासियो के घरो में छुप जाते थे| जो की कांक्रीट के बने होते थे जिससे ज्यादा गोलीबारी करने विस्फ़ोट करने से मासूम लोगो की हत्या हो जाती थी इन पोर्टा कैबिंस को बांस की लकडियों से बनाने का यही कारण था की अगर सैन्य बल और नक्सलियों के बिच मुठभेड़ हो तो उन्हें छुपने की जगह न मिले और अगर वह इसके अंदर जायेंगे तब भी मारे जायेंगे और बहार भी सरकार का यह भी मानना था की इस प्रक्रिया से सभी बच्चे सुरक्षित रहेंगे|

इनका निर्माण इसलिए हुआ ताकि इन में अंदर के गाँव के बच्चो को ला कर रखा जा सके जिससे वह किसी नक्सली गतिविधि या गिरोह में शामिल ना हो| उस समय इन पोर्टा कैबिंस में केवल गाँव से लाये गये बच्चो को रखा गया और समय-समय पर केवल उन्हें पोस्टिक आहार दिया गया यह एक प्रकार से सरकार के “सैन्य बल” की रक्षा के लिए भी थे| इनका निर्माण ज्यादातर सैन्य शिविर (military camp) के पास किया गया जिससे वह भी सुरक्षित रह सके और किसी भी हमले से बचने में आसानी हो सके क्योकि उनका ऐसा मानना था की नक्सली उस जगह आक्रमण नही करेंगे जहाँ मूल निवासी या उनके बच्चो हो शायद यही कारण था की इन पोर्टा कैबिंस को 500 बच्चो के रहने के हिसाब से काफी विशाल रूप दे कर बनाया गया था|
यहाँ गाँव से लाये गये बच्चो के पास खेलने खाने और सोने के अलावा कोई कार्य नही था| इन बातो को मध्यनज़र रखते हुए जब हालातों में पहले से और भी ज्यादा सुधार दिखा| तब सरकार द्वारा यह निर्णय लिया गया कि इन पोर्टा कैबिंस में पढ़ाई शुरू करायी जाएगी जिससे यहाँ रहने वाले बच्चो के विकास में मदद होगी और फिर वर्ष 2012 के आते-आते इन पोर्टा कैबिंस को विद्यालयों का रूप दे दिया गया और हर एक शिक्षा से जुड़ी वस्तु विद्यार्थियों को मुफ्त में सरकार द्वारा मुहैया करायी जाने लगी| वर्तमान समय की हम बात करे तो देखते है की इन पोर्टा कैबिंस कहलाये जाने वाले विद्यालयों की दीवारे जो की कभी बांस की लकड़ी की हुआ करती थी| आज ईंटो की दिवार में तब्दील हो गयी है| परन्तु क्या यह बदलाव शिक्षको और विद्यार्थियों के संबंधो में भी आया है…? आज भी शिक्षको द्वारा विद्यार्थियों को उसी दयनीयता के साथ पिटा जाता है| जैसे उस समय पिटा जाता था| जब पोर्टा कैबिंस को विद्यालयों में बदला गया था|
गौर करने की बात यह है कि उस समय भी बच्चो को अनुशासन सिखाया जा रहा था और आज भी अनुशासन सिखाया जा रहा है| आखिर यह कैसा अनुशासन है जो एक बच्चा कक्षा पहली से लेकर आज कक्षा नौवी तक नही सिख पा रहा बच्चो को अनुशासन में लाने के लिए एक-एक हाथ पर दस-दस डंडे मारे जाने का प्रावधान है| छत्तीसगढ़ जो भारत का ही एक राज्य है और भारत के संविधान में जो कानून सभी बच्चो के लिए है वही कानून इन बच्चो के लिए भी है तो आखिरकार यहाँ के शिक्षक इन सभी कानूनों का उलंघन करके उनको कौनसे ऐसे सपने और कौनसा ऐसा मार्गदर्शित करना चाहते है जिसके लिए उन्हें इन कानूनों का उलंघन करना कोई बड़ी बात नही लगती| इनको ऐसे शारीरिक दंड से प्रताड़ित किया जाता है जिसे आप या मैं इस उम्र में भी न झेल पाये|
क्या यह हमारे सिस्टम का दोष नही जिस में ऐसे शिक्षको को नियुक्त किया जा रहा है ? क्या हमारे सिस्टम को इस बात की इतने सालो से कोई भनक नही है कि इन मासूमो को इस दयनीयता से प्रताड़ित किया जा रहा है अगर हल्की सी भी भनक है तो इसे रोकने का प्रयास क्यों नही किया जा रहा है? इन्हें यह नही पता की किसी भी स्तर पर किसी भी विद्यार्थी में आत्मगीलानी पैदा हो सकती है …
The blog was originally published in India fellow blog. The blog is written by Md. Azhruddin who was former India fellow working in Shiksharth Sukma.